आयुर्वेद और गृह्यसूत्रों में पुंसवन संस्कार के अंतर्गत माता (गर्भवती स्त्री) को कौन‑सी औषधियों का नस्य (नाक में दिया जाने वाला द्रव्य) दिया जाता है। इसमें वर्णित औषधियों के नाम, प्रयोग विधि, अनुपान, मंत्र तथा स्रोत ग्रंथों (जैसे चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, भैषज्य रत्नावली, आश्वलायन गृह्यसूत्र आदि) का संदर्भ भी सम्मिलित होगा। – डॉ. कर्दम ऋषि – मुंबई – 10/10/2010
पुंसवन संस्कार गर्भधारण के बाद शुरुआती तीन या चार महीनों में किया जाने वाला एक हिंदू संस्कार है, जिसका उद्देश्य गर्भस्थ शिशु के शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक विकास को सुनिश्चित करना है. इसके महत्वपूर्ण पहलुओं में शिशु के स्वास्थ्य, सुरक्षा और अच्छे संस्कारों की नींव रखना शामिल है, और यह गर्भावस्था के दौरान माँ के लिए पौष्टिक आहार, सकारात्मक माहौल और अच्छे विचारों पर जोर देता है.
पुंसवन संस्कार का उद्देश्य और महत्व
शारीरिक और बौद्धिक विकास: यह संस्कार गर्भस्थ शिशु के मस्तिष्क के विकास को बढ़ावा देता है और यह सुनिश्चित करता है कि शिशु स्वस्थ और हष्ट-पुष्ट पैदा हो.
संस्कारों की नींव: इस समय, शिशु गर्भ में ही सीखना शुरू कर देता है, और पुंसवन संस्कार के माध्यम से उसमें अच्छे संस्कारों की नींव रखी जाती है.
गर्भ की रक्षा: माना जाता है कि यह संस्कार गर्भ में पल रहे शिशु की सुरक्षा करता है और माँ के स्वास्थ्य के लिए भी फायदेमंद होता है.
सकारात्मक वातावरण: इस संस्कार के दौरान, गर्भवती महिला को अच्छे माहौल में रहने, अच्छी किताबें पढ़ने और सकारात्मक बातें सोचने के लिए प्रेरित किया जाता है, जिसका बच्चे पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है.
आधुनिक संदर्भ: आज के समय में, पुंसवन संस्कार का वैज्ञानिक महत्व है जो एक स्वस्थ गर्भावस्था के लिए पौष्टिक आहार, शांतिपूर्ण और सकारात्मक माहौल बनाए रखने की वकालत करता है.
पुंसवन संस्कार में गर्भवती को दिए जाने वाले नस्य की आयुर्वेदिक जानकारी
पुंसवन संस्कार में प्रयुक्त औषधियाँ एवं संयोजन
आयुर्वेदिक ग्रंथों में वर्णित द्रव्य: चरक संहिता, सुश्रुत संहिता आदि में गर्भवती को कुछ विशिष्ट जड़ी-बूटियों का नस्य देने का विधान है। उदाहरणतः –
- जीवक (Jīvaka) – Microstylis wallichii
- ऋषभक (R̥ṣabhaka) – Microstylis muscifera
- अपामार्ग (Apāmārga) – Achyranthes aspera
- सहचर/सैरेयक (Sahacara/Saireyaka) – Barleria prionitis
इन चारों औषधियों का पेस्ट (कल्क) तैयार कर गाय के दूध में मिलाकर गर्भिणी को नस्य कराया जाता है। चरक संहिता में स्पष्ट निर्देश है कि ये औषधियाँ सामूहिक या व्यक्तिगत रूप से आवश्यकता अनुसार लेकर दुग्ध के साथ प्रसूतिगृहिणी की नासिका में डाली जाएँ। सुश्रुत संहिता के अनुसार भी गर्भ स्थापना हेतु लक्ष्मणा (Lakṣmaṇā) – Ipomoea sepiaria, वटाङ्कुर (Vaṭaśr̥ṅga) – बरगद के शाखा-अन्त का अंकुर, तथा सहदेवी (Sahadevī)/ विश्वदेवी (Viśvadevī) – Vernonia cinerea – इनका रस निकालकर दूध के साथ मिश्रित कर 3-4 बूँद दाहिनी नासिका में टपकाया जाता है। (कुछ स्रोतों में कुटज (Kuṭaja – Holarrhena antidysenterica) की जड़ या छाल को भी गर्भ-स्थापन के योग में शामिल किया गया है।)
गृह्यसूत्रों में निर्दिष्ट औषधियाँ: वैदिक गृह्यसूत्रों में पुंसवन कर्म हेतु मुख्यतया न्यग्रोध (Nyagrodha) – वटवृक्ष की कोमल शिखा का प्रयोग मिलता है। आश्वलायन गृह्यसूत्र में कहा गया है कि गाय के बाड़े (गोष्ठ) में उत्पन्न वट-वृक्ष की पूर्वोत्तर दिशा की शाखाओं पर लगी बिना गिरी हुई कोमल शुण्डिका (अंकुर) को लें, उसे दो उत्तम माष-दानों (काले उड़द) अथवा दो गौर सरषप (सफेद सरसों) के साथ दही में घोटें और गर्भवती को पिलाएँ। तत्पश्चात् उसी वट-अंकुर का रस निकालकर पति अपनी पत्नी की दाहिनी नासाछिद्र में कुछ बूँदें स्वयं डालता है। पारस्कर गृह्यसूत्र में भी निर्देश है कि रात्री में (पुष्य नक्षत्र के दिन) वट-वृक्ष की जटा और कोपल को पानी में पीसकर उसी प्रकार स्त्री की दाहिनी नासिका में छानना चाहिए। शाङ्खायन गृह्यसूत्र तो वट-अंकुर के साथ विकल्प में सोमलता (Somavalli) की डंडी, कुश की नोक, अथवा यज्ञवेदी के जले हुए खम्भे का अंश भी पीसकर नस्य हेतु प्रयोग करने को कहता है। लाट्यायन गृह्यसूत्र (सामवेद) की परम्परा में भी तीसरे माह में पुष्य नक्षत्र पर वट-पल्लव, कुश आदि का नस्य करवाने का विधान मिलता है।
औषधि प्रयोग की मात्रा व अनुपान
आयुर्वेद में नस्य द्रव्यों की मात्रा बहुत कम (बूँदों के रूप में) रखी जाती है। जैसे चरक के विधान में दही में घोटे गए वट-अंकुर को “नवशेषतः” – पूरी तरह छलकाकर, केवल कुछ बूँदें ही नासाछिद्र में डाली जाती हैं। वट-अंकुर के दही-घोल में प्रति मुठ्ठी दही के साथ दो माष और एक यव मिलाने का निर्देश है। अन्य औषधियों (जीवक, ऋषभक आदि) का कल्क दूध में मिलाकर पिलाया जाता है – मात्रा उतनी ही रखी जाती है जिससे 3-4 बूँद नस्य निकल आए। सुश्रुत के मतानुसार लक्ष्मणा, वटाङ्कुर आदि का रस दूध के साथ कुचलकर मात्र ३-४ बूँद नस्य देने हेतु पर्याप्त होता है। कुछ मतों में वट-अंकुर के चूर्ण को घृत में मिलाकर भी नस्य की बात आई है, तो कहीं रेशम के कीड़े को पीसकर कान्ही (लाजा-भात) में मिलाकर प्रयोग का वर्णन है – परंतु सर्वत्र माध्यम (अनुपान) सौम्य व स्निग्ध (दूध, दही, घृत) ही रखा गया है जिससे औषधियाँ गर्भ में कोमलता से प्रभाव कर सकें।
नस्य की विधि व समय
गर्भ के किस मास में: अधिकांश स्रोतों में पुंसवन संस्कार तीसरे माह में सम्पन्न करना उचित कहा गया है, क्योंकि इसी समय तक भ्रूण के लिंग-लक्षण प्रकट नहीं हुए होते। पारस्कर गृह्यसूत्र दूसरे माह को भी विकल्प रूप में स्वीकार करता है, परन्तु गर्भ के हिलने से पूर्व यह क्रिया कर लेनी चाहिए। कुछ मत (जैमिनि, भारद्वाज) चौथे माह तक बढ़ाते हैं, किन्तु धर्मसिन्धु आदि के अनुसार प्रत्येक गर्भ में तीसरे महीने पुंसवन आवश्यक है।
नक्षत्र एवं मुहूर्त: विधानों के अनुसार वह तिथि चुनी जाती है जब चन्द्रमा किसी पुं-नक्षत्र (पुरुष नाम वाले नक्षत्र, जैसे पुष्य, श्रवण आदि) से युक्त हो। प्रायः पुष्य नक्षत्र को श्रेष्ठ माना गया है। पारस्कर सूत्र के अनुसार रात्री में (जब वह नक्षत्र हो) औषधि तैयार कर प्रातः कर्म किया जाए। गर्भवती को स्नान कराकर, स्वच्छ अधोवासना धारण करायी जाती है। सूत्रों में स्त्री को सुवस्त्रा (श्वेत वस्त्र तथा पुष्प-माला) पहनाने का भी उल्लेख मिलता है।
नस्य की क्रिया: गर्भवती स्त्री को सपिंडी (गोलाकार कमरे) की छाया में, सिर को थोड़ा नीचे झुकाकर लिटाया जाता है। आश्वलायन सूचित करते हैं कि अँधेरे गोल कक्ष में पति स्वयं अपनी पत्नी की दाहिनी नासिका में औषध-रस डालें। सभी ग्रन्थ दाहिनी नासाछिद्र से नस्य का पक्ष लेते हैं – यह पुंसवन (पुत्र-जन्म की अभिलाषा) हेतु है। यदि कन्या संतान ही चाहिए, तो चरक ने उक्त द्रव बाईं नासाछिद्र में डालने का विकल्प बताया है। नस्य देते समय कपास या पिचु की पतली पट्टी से बूंदें धीमे-धीमे टपकाई जाती हैं। औषध गिराते समय गर्भवती को देहली (दहलीज़) पर सिर टिकाकर औंघा लेने को भी कहा गया है, ताकि द्रव सीधा भीतर जाए। नस्यपान के बाद गर्भिणी उसे थूकें नहीं, चुपचाप ग्रस कर ले – ऐसी भी हिदायत है, जिससे द्रव्य का पूर्ण प्रभाव शरीर में उतरे।
मन्त्र उच्चारण एवं ब्राह्मण वाक्य
पुंसवन कर्म के दैविक अंश में विभिन्न वैदिक मंत्रों का उच्चारण अनिवार्य माना गया है। अथर्ववेद में पुंसवन हेतु पृथक सूक्त है जिसके मंत्र संस्कार करते समय बोले जाते हैं – उदाहरणतः “आ ते योनिं गर्भ एतु पुमान् वाण इवेषुधिम् । आवीरोऽत्र जायतां पुत्रस्ते दशमास्यः ॥” इत्यादि मंत्र गर्भ प्रवेश और पुत्र-जन्म की कामना से पुंसवन में प्रयुक्त होते हैं। इसी सूक्त के अगले मन्त्रों में “पुमांसं पुत्रं जनय…”, “यानि भद्राणि बीजानि ऋषभा जनयन्ति च… सा प्रसूः धेनुका भव” इत्यादि शब्दों द्वारा गर्भ में वीर्यवान् पुत्र उत्पन्न करने की प्रार्थना की गई है।
गृह्यसूत्रों के मंत्र: आश्वलायन गृह्यसूत्र में बताया है कि नस्य देते समय प्रजापति सूक्त तथा जीवपुत्र-सूक्त के मंत्र बोले जाएं। पारस्कर गृह्यसूत्र में दो यजुष् मंत्रों से आसेचन करने का निर्देश है – “हिरण्यगर्भोऽद्भ्यः संवृत्त:” तथा “यद्रूपं जलतो उत्पन्नम्…” (ये मंत्र क्रमशः यजुर्वेद संहिता 13.4 एवं 31.17 के अंश हैं)। शांखायन गृह्यसूत्र में ऋग्वेद से अग्निदेव एवं गर्भस्थान से संबन्धित चार ऋचाओं द्वारा नस्य-संकल्प करने को कहा गया है – जैसे ऋग्वेद के मंत्र “अग्निर्मु॒खाद्वि॑श्वकर्मणः… स्वाहा” आदि चार मंत्र प्रत्येक के अंत में स्वाहा उच्चारित कर नस्य डाला जाता है। नस्य के पश्चात् प्रजापति स्थालीपाक यज्ञ करके गर्भवती के हृदय पर हाथ रखकर आशीर्वचन भी दिया जाता है। आश्वलायन के अनुसार यह आशीष ब्रह्मण वाक्य के रूप में होती है – जैसे “यत् ते सुसिमे हृदये संहितं गर्भस्य” इत्यादि वाक्य जिसमें गर्भ के स्थिर रहने और पुत्र के दीर्घायु होने की कामना की जाती है। इन वैदिक मन्त्रों व ब्राह्मण-वाक्यों के प्रभाव से गर्भ पर मानसिक व आध्यात्मिक संस्कार भी होता है।
संदर्भ ग्रंथ एवं उद्धरण
- चरक संहिता (शारीर स्थान ८) – पुंसवन कर्म में वटाङ्कुर, माष/सरषप, जीवक, ऋषभक, अपामार्ग, सहचर आदि के प्रयोग का वर्णन
- सुश्रुत संहिता (शारीर स्थान ३) – लक्ष्मणा, वटाङ्कुर, सहदेवी/विश्वदेवी का दूध संग नस्य तथा पुंसवन के अन्य नियम
- भावप्रकाश तथा भैषज्य रत्नावली – गर्भस्थापन एवं सन्तानोत्पत्ति प्रकरण में उपर्युक्त औषधियों को पुत्रप्रद माना है। आधुनिक वैद्यक ग्रन्थ भी बताते हैं कि लक्ष्मणा एवं वट अंकुर को पुष्य नक्षत्र में मन्त्रपूत कर गर्भिणी को देने से कई दुर्बल माताओं ने स्वस्थ संतति पाई
- आश्वलायन गृह्यसूत्र (१.१३) – पुंसवन में दही+माष+यव एवं वट-पल्लव का पान व नस्य, तथा प्रजापत्य-सूक्त मंत्र प्रयोग का निर्देश
- शांखायन गृह्यसूत्र (१.२०) – पुंसवन को तीसरे मास पुष्य/श्रवण नक्षत्र में सम्पन्न करने, तथा सोमलता/वटाङ्कुर आदि का रस दाहिनी नासिका से चार ऋग्वेद मन्त्रों द्वारा प्रविष्ट कराने का विधान
- पारस्कर गृह्यसूत्र (१.१४) – पुंसवन हेतु (गर्भ के गति करने से पूर्व) वट-जटा एवं कोपल को रात्रौ घोटकर, पुष्य-दिन प्रातः दाहिनी नासापुट में “हिरण्यगर्भः…” आदि यजुष् मन्त्रों से अवश्रिंण्वन करने का निर्देश
- लाट्यायन गृह्यसूत्र – सामवेदीय परम्परा में पुष्य योग में वट-पल्लव घोटित दूध का नस्य तथा अन्य वैदिक मंत्रोच्चार (सामगान) से पुंसवन-संस्कार का उल्लेख।
इन विशद वर्णनों से स्पष्ट है कि पुंसवन संस्कार में औषधि-नस्य एक महत्वपूर्ण अंग है, जिसमें संस्कृत औषधि-नामों सहित निर्धारित योग, मात्रा, विधि, मंत्र एवं अनुष्ठान-वाक्य सभी का समावेश प्राचीन आचार्यों ने सुनिश्चित किया था । इन पारंपरिक निर्देशों का पालन कर आज भी आचार्य एवं वैद्य स्वस्थ, गुणवान् संतति हेतु पुंसवन संस्कार संपन्न करते हैं।

